रविवार का दिन है। मुंबई की सुबह अलसाई हुई है। बारिश कमजोर हुई है तो सूरज भी अपना ताप दिखाने को बेकरार है। लेकिन, इसी मुंबई शहर में आज से ठीक 75 साल पहले एक ऐसा सूरज भी चमका था जिसके आभामंडल ने हिंदी सिनेमा को न सिर्फ एक नई दिशा दी बल्कि सामाजिक सरोकारों से जुड़ी फिल्मों की एक नई गंगा भी बहाई। कपूर खानदान भले बीती सदी के इस सबसे बड़े शोमैन की बनाई पहली फिल्म ‘आग’ को भूल चुका हो, भले इस फिल्म की असली रील अब राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय में अपनी सूरत संवारने के इंतजार में हो लेकिन सच यही है कि आग में झुलसे एक युवक की दर्द भरी कहानी को सुने जमाने को 75 साल पूरे हो गए। इसी के साथ पूरे हुए आर के स्टूडियो की स्थापना के भी 75 साल, ये और बात है कि अब न आरके स्टूडियो है और न ही इस शहर में राज कपूर की बतौर निर्माता-निर्देशक पहली फिल्म का कोई जश्न ही हो रहा है।
राज कपूर की बतौर निर्माता, निर्देशक पहली फिल्म
मुंबई शहर तब बंबई हुआ करता था। पृथ्वीराज कपूर का थियेटर में बड़ा नाम था और उनके बड़े बेटे ने फिल्मों में कदम रख दिया था। अभी 24 साल के भी नहीं हुए थे राज कपूर कि उन्होंने खुद फिल्म निर्देशन की कमान संभालने की अपनी इच्छा पिता के सामने जाहिर की। फिल्म ‘नील कमल’ में राज कपूर के भोले चेहरे पर जमाना फिदा हो चुका था। पिता की अनुमति मिली तो राज कपूर ने पिता की नाटक कंपनी के लिए काम करने वाले लेखक इंदर राज आनंद को अपने साथ लिया और पिता की नाटक कंपनी के नाटकों के लिए संगीत रचने वाले राम गांगुली को भी। फिल्म की कहानी और संगीत पर एक साथ काम शुरू हुआ। फिल्म बनी और खूब सराही गई।
सिनेमैटोग्राफी की पाठशाला बनी फिल्म
ब्लैक एंड व्हाइट में बनी इस फिल्म में सिनेमैटोग्राफर वी एन रेड्डी ने अपना कमाल का हुनर दिखाया है। रेड्डी भारतीय फिल्मों में सिनेमैटोग्राफी का बड़ा नाम रहे। छाया और प्रकाश का उनका अद्भुत संयोजन, कलाकारों के चेहरों के भाव दिखाने के लिए कैमरे का उनके बिल्कुल करीब तक चले जाना और दो एक्सट्रीम क्लोज अप का एक के बाद एक परदे पर आना, सब कुछ बिल्कुल अनोखा था। राज कपूर ने फिल्म ‘आग’ के लिए बेहतरीन टीम संजोई थी। वी एन रेड्डी का काम बाद में दर्शकों ने ‘बैजू बावारा’, ‘कश्मीर की कली’ व ‘पूरब और पश्चिम’ जैसी फिल्मों में भी देखा। लेकिन, उनको सिनेमैटोग्राफी में प्रयोग करने की जो छूट राज कपूर ने फिल्म ‘आग’ में दी, वह एक निर्देशक और एक सिनेमैटोग्राफर की संगत की हिंदी सिनेमा की अद्भुत मिसाल है।
खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो
अभिनेता- निर्देशक टीनू आनंद और निर्माता बिट्टू आनंद के पिता इंदर प्रोगेसिव राइटर्स में शामिल थे, नाम भी तब वह सिर्फ इंदर राज ही लिखा करते थे। उनके पोते सिद्धार्थ आनंद को भी शायद अब अपने बाबा की लिखी ये पहली फिल्म याद न हो लेकिन, इसी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म में लिखा संवाद, ‘खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो’, आज तक तमाम विज्ञापनों में घुमा फिराकर इस्तेमाल का जाता है। फिल्म के संवाद बेहद मार्मिक हैं, खासतौर से वह दृश्य जिसमें घर छोड़कर निकला केवल एक वीरान पड़े थियेटर में अपने माता पिता की याद कर एकल संवाद बोले जा रहा है, बोले जा रहा है, बोले जा रहा है और फिर थियेटर के मालिक के रूप में प्रेमनाथ नजर आते हैं। राजन नाम का यह किरदार केवल को न सिर्फ अपने यहां शरण देता है बल्कि उसे थियेटर कंपनी में अपना साझीदार बना लेता है।
युवाओं के सीने में लगी आग की कहानी
फिल्म ‘आग’ दरअसल उस आग की बात करती है जो आजादी के ठीक बाद देश में फैली बेरोजगारी की युवाओं के सीने में लगी थी। ये आग उन सामाजिक उसूलों की भी बात करती है जिसमें बेटे से अपने पिता की हर बात मानने की उम्मीद रहती है। और, ये आग इस बात की भी है कि आखिर बड़ा होने के बाद माता पिता अपने बच्चों को उनकी पसंद का करियर चुनने में मदद क्यों नहीं करते। यहां मामला एक बड़े सरकारी वकील का है, जिसका बेटा बचपन से ही नाटकों की तरफ आकर्षित हो जाता है।