उत्तर प्रदेश में होने वाले निकाय चुनावों को आने वाले लोकसभा चुनावों के लिटमस टेस्ट के तौर पर देखा जा रहा है। भाजपा, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर निकाय चुनावों के सियासी रण में अपनी बिसात तो बिछा दी है। लेकिन सियासी गलियारों में चर्चा इस बात की है कि 2017 के निकाय चुनावों में निर्दलीयों ने जिस तरीके से अपना परचम बुलंद किया था, क्या इस बार भी उसी तरीके से सियासत की राह पर निर्दलीय चलेंगे। पिछले चुनावों में भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर निर्दलीयों ने ही निकाय चुनावों में झंडे गाड़े थे।
उत्तर प्रदेश में होने वाले निकाय चुनावों के एलान के साथ लोकसभा चुनावों से पहले ही सियासी तपिश बढ़ गई है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगले साल लोकसभा के चुनाव हैं। इसी वजह से इन चुनावों में सभी राजनीतिक दल अपनी पूरी ताकत के साथ मैदान में उतर रहे हैं। 2017 निकाय चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें, तो पता चलता है कि भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर निर्दलीयों ने ही सबसे ज्यादा मजबूत पकड़ बनाते हुए नगर पंचायत और नगर पालिका में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। 2017 में हुए निकाय के चुनावों में भाजपा ने 14 नगर निगम में अपना मेयर बनाया था। जबकि बसपा ने दो नगर निगम के मेयर बनाए थे। उत्तर प्रदेश की 538 नगर पंचायतों में सबसे ज्यादा निर्दलीयों ने कब्जा किया था। आंकड़ों के मुताबिक 538 नगर निगम में 181 निर्दलीयों ने सीट निर्दलीयों के हिस्से आई थीं। जबकि भाजपा 100 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर रही थी। तीसरे नंबर पर समाजवादी पार्टी ने 63 नगर पंचायतों पर कब्जा किया था और 74 नगर पंचायत के अध्यक्ष बहुजन समाज पार्टी के बने थे।
इसी तरह उत्तर प्रदेश की 158 नगर पालिकाओं में दूसरे नंबर पर निर्दलीयों ने कब्जा किया था। आंकड़ों के मुताबिक 58 नगर पालिका में निर्दलीय अध्यक्ष चुने गए थे। जबकि नगर पालिका में पहले नंबर पर भाजपा के 67 अध्यक्ष बने थे। राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अनिरुद्ध चतुर्वेदी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश की सियासत में कोई भी चुनाव हो, उसकी तपिश को हमेशा न सिर्फ महसूस किया जाता है, बल्कि उसके असर भी बड़े चुनावों में देखने को मिलते हैं। वह कहते हैं कि अगले साल लोकसभा का चुनाव है, इसलिए इस साल होने वाले निकाय चुनाव को आगामी चुनाव के लिटमस टेस्ट के तौर पर ही देखा जा रहा है। इस बार तो उत्तर प्रदेश में निकाय चुनावों की सीटें भी बढ़ गई हैं। 17 नगर निगम के साथ दो सौ नगरपालिका और पांच सौ नगर पंचायत का बड़ा चुनाव लोकसभा चुनावों की तस्वीरों का कुछ अक्स तो दिखाएगा ही।
राजनीतिक विश्लेषक किशोर सिन्हा कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव लोकसभा चुनाव से पहले के बड़े चुनाव के तौर पर ही देखे जा रहे हैं। वह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के आम चुनावों में मतदान करने वाले तकरीबन 15 करोड़ वोटर हैं। जबकि निकाय चुनावों में उसके एक चौथाई से ज्यादा तकरीबन साढ़े चार करोड़ वोटर हैं। वह कहते हैं कि ऐसे में एक चौथाई से ज्यादा वोटरों की संख्या और उनके निकाय चुनाव के परिणाम लोकसभा के चुनावों का माहौल तो निश्चित रूप से बनाएंगे ही। यही वजह है कि सभी राजनीतिक दल निकाय चुनावों की तैयारी में एक बार फिर से जुट गए हैं।
कांग्रेस और सपा ने भी की मजबूत तैयारी
बीते निकाय चुनावों में भाजपा ने अपना प्रदर्शन न सिर्फ बेहतर किया था, बल्कि उसके बाद के चुनावों में भी भाजपा लगातार बेहतर प्रदर्शन करती आई है। ऐसे में पार्टी अपना सियासी ग्राफ निकाय चुनावों के माध्यम से मजबूत करना चाहती है। जनता पार्टी से जुड़े नेताओं का कहना है कि उनकी पार्टी ने इसके लिए अपनी नीतियां भी बना ली हैं और उसी लिहाज से वह जमीन पर काम भी कर रही है। सियासी जानकारों का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी इस बार दलितों पर भी अपना मजबूत फोकस करके उनको चुनाव में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के लिहाज से आगे करने की तैयारी कर रही है।
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राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के लिए बड़ी चुनौतियां भी हैं और उसी लिहाज से बड़ी संभावनाएं भी नजर आ रही हैं। चूंकि बीते निकाय चुनाव में समाजवादी पार्टी का एक भी मेयर नहीं था। इसलिए पार्टी ने इस बार न सिर्फ जातिगत समीकरणों को देखते हुए, बल्कि अपने सियासी दखल के आधार पर नई रणनीति बनाई है। बीते कुछ समय में जिस तरीके से समाजवादी पार्टी ने दलितों को आगे करके अपनी सियासत में एक नए रास्ते पर चलने का इशारा किया है। सियासी गलियारों में अनुमान लगाया जा रहा है कि सपा इस नए समीकरण से बहुत कुछ निकाय चुनाव में हासिल करने के प्रयास में है। फिर समाजवादी पार्टी ही नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी भी निकाय चुनावों में अपनी मजबूत स्थिति दर्ज कराने के लिए जमीन पर काम कर रही है। राजनीतिक विश्लेषक जटाशंकर सिंह का मानना है कि उदयपुर में हुए चिंतन शिविर के बाद कांग्रेस ने जो अपनी नीतियां और रणनीतियां बनाई थीं, अगर उसके आधार पर चुनावी चौसर सजाई जाएगी, तो कांग्रेस को भी आगामी चुनावों में कुछ सकारात्मक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।