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Hisar Ka Hero:यशपाल शर्मा ने ‘दादा लखमी’ के लिए बेच दिया अपना घर, बोले, ‘छिपकली’ में करियर का बेस्ट किरदार है – Hashiye Ke Superstar 11 Yashpal Sharma Dada Lakhmi Lagaan National School Of Drama Hazaar Chaurasi Ki Maa

ऑस्कर पुरस्कारों की दहलीज तक जा पहुंची हिंदी फिल्म ‘लगान’ का जब भी जिक्र होगा, इसके खास किरदार लाखा की याद दर्शकों को जरूर आएगी। हिसार की मिट्टी में अपने भीतर के कलाकार को पहली बार चाक पर चढ़ाने वाले यशपाल शर्मा की बनाई फिल्म ‘दादा लखमी’ को सर्वश्रेष्ठ हरियाणवी फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला है। इस फिल्म को बनाने के लिए यशपाल ने जो कुछ सहा, वह कम ही लोगों को पता है। रंगमंच से लेकर सिनेमा तक यशपाल ने वही किरदार किए जो उनके मन को भाए। अपने भीतर के अदाकार के लिए उन्होंने समझौते से हमेशा दूरी बनाए रखी। चाहते तो मुंबई आने के बाद छोटे परदे के धारावाहिकों के जरिये लाखों रुपये भी कमा सकते थे, लेकिन नहीं, उनकी अपनी एक जिद थी और इसी जिद के बूते उन्होंने अपने आसपास सिनेमा की दुनिया बदल दी है। ‘हाशिये के सुपरस्टार’ सीरीज की 11वीं कड़ी में आज बात इन्हीं दमदार अभिनेता यशपाल शर्मा से..



पैसे नहीं थे तो मां को नहीं बचा पाए

हमारा बचपन बहुत ही गरीबी में गुजरा। जब मै दसवीं में पढ़ रहा तो मां की कैंसर से मृत्यु हो गई। उस समय हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि मां का इलाज करा सके। मां जब जिंदा थी, सुबह चार बजे से रात को 11 बजे तक काम करती रहती थीं। बड़े भैया को पैसे की वजह से पढाई छोड़नी पड़ी। हम सात भाई बहन है। छोटी बहन को बचपन में कुत्ते ने काट लिया था, उसका इलाज नहीं करवा पाए और उसकी एक महीने के अंदर ही मृत्यु हो गई। खाने को पैसे नहीं होते थे। एक समय ऐसा भी आया जब तीन भाई एक टाइम खाना खाते थे और बाकी तीन दूसरे टाइम खाना खाते थे। 


पंक्चर लगाए, घरों में झाड़ू पोंछा किया

मेरे घर में गाय और बकरियां थीं। गाय के लिए मैं घास काटकर लाता था और बकरियां चराने जाता था। बकरियां चराने जाते तो किताब भी लेकर जाते और वहीं पर पढ़ते। मां के जाने के बाद मैंने लोगों के घरो में झाड़ू पोछा भी लगाया। साइकिल के पंचर बनाए। तेल की फैक्ट्री और टीन की फैक्ट्री में काम किया। टीन के फैक्ट्री में तो काम करते वक्त हाथ कट जाते थे। इस तरह से बहुत सारे छोटे छोटे काम किए लेकिन खुशी बहुत मिलती थी। उस समय खुशी का पैसे से कोई ताल्लुक नहीं था। जीवन कठिन जरूर था, लेकिन उसमें बहुत सुकून था। मेरा मानना है कि जितना कठिन रास्ता रहता है, मंजिल उतनी ही आसान होती है।   


पिता पैसे कमाते और मां घर संभालतीं

मेरे पिता प्रेम चंद्र शर्मा नहर डिपार्टमेंट में चपरासी थे। उन्हें हिसार में सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था। उसी में हम लोग रहते थे। मेरी मां विद्या देवी और मेरे बड़े भाई घनश्याम दास शर्मा ने ही हम सभी भाई बहनों की पढ़ाई लिखाई पूरी करवाई। वह टेलीफोन विभाग में अटेंटेड थे। अभी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। बड़े भाई अब भी उसी नहर क्वार्टर में रहते हैं। पिताजी अपने काम में व्यस्त रहते थे। उनको तो यह भी नहीं पता था कि उनका कौन सा बच्चा किस क्लास में पढ़ रहा है। मेरी मां ने ही सारी जिम्मेदारी निभाई। घर ही आर्थिक स्थिति को देखते हुए मैं भी कोई न कोई ना कोई पार्ट टाइम का जॉब करता था। फुल टाइम जॉब इसलिए नहीं किया क्योंकि मुझे एनएसडी में दाखिला लेना था।


25 पैसे में एडमीशन, 15 पैसे फीस

मेरी पूरी पढ़ाई लिखाई हिसार में ही हुई है। बीए तक हिसार में ही पढ़ाई की उसके बाद चंडीगढ़ आकर ड्रामा में एमए से करने की कोशिश की। फिर उसे अधूरा छोड़कर  नेशल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) आ गया। पांचवी तक हिसार के सरकारी स्कूल राजकीय प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा। मुझे याद है पहली कक्षा में मेरा एडमिशन 25 पैसे में हुआ था और हर महीने 15 पैसे फीस लगती थी। छठवीं से दसवीं तक जाट हाई स्कूल में पढ़ाई की, छठवीं से तो हमने एबीसीडी सीखनी शुरू की थी, फिर ग्यारहवीं और बारहवीं गवर्नमेंट कॉलेज हिसार से किया उसके बाद बीए भी गवर्नमेंट कॉलेज हिसार से किया। तब तक मैं रंगमंच पर नाम कमाने लगा था और हर कॉलेज के लिए मेरे पास बुलावा आता कि हमारे यहां एडमीशन ले लो। उनको लगता था कि मैं उनके यहां नाटक करूंगा तो कॉलेज का नाम होगा।


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