छत्तीसगढ़ के छोटे से कस्बे भाटापारा से ताल्लुक रखने वाले दीपक किंगरानी मानते हैं कि सिनेमा सीखने का सबसे सही तरीका है, अच्छा सिनेमा देखना। उनकी लिखी फिल्म ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ इस साल की अब तक रिलीज हिंदी फिल्मों में सबसे अच्छी फिल्म मानी जा रही है। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके सिनेमा में अपनी किस्मत आजमाने पहुंचे दीपक किंगरानी ने लंबे संघर्ष के बाद सफलता देखी है और इसके लिए वह उन सबका एहसान मानते हैं जिन्होंने उनके सपने को एक आकार दिया। सिनेमा की पटकथा लिखने, दूसरों से मिले सबक से लगातार खुद को निखारते रहने और उनकी आने वाली फिल्म के बारे में दीपक किंगरानी से ये एक्सक्लूसिव मुलाकात की ‘अमर उजाला’ के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल ने।
भाटापारा व रायपुर से स्कूल और ग्वालियर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले छात्र को सिनेमा का चस्का कैसे लगा?
सिनेमा मेरा शौक शुरू से रहा। और, सिनेमा कैसे बनता है, इसमें मेरी दिलचस्पी शायद इंजीनियरिंग की पढ़ाई ने जगाई। इंजीनियरिंग करने के बाद लंबे समय तक नौकरी के सिलसिले में विदेश में रहा और फिर कोई 13-14 साल पहले मेरा मन नौकरी से उचट गया। मुझे लगा कि लेखन को ही मुझे अपना पेशा बनाना चाहिए और ये शायद मेरे डीएनए में भी है। मेरे पिता अपना कारोबार संभालने के साथ साथ एक अखबार के लिए खबरें भी लिखा करते थे।
तो, मुंबई आप फिल्म लेखक बनने के लिए ही आए। इस दौरान किन किन लोगों ने आपका हौसला बढ़ाने में मदद की?
हिंदी सिनेमा के एक बहुत वरिष्ठ लेखक हैं हबीब खान। वह पहले इंसान हैं जिन्होंने मेरे लेखन पर भरोसा जताया। इसके अलावा छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश से आने वालों के लिए रूमी जाफरी हमेशा एक लाइट हाउस की तरह रहे हैं। उनसे मैं खूब मिलता रहता था, वह मेरी कहानियां सुनते और मेरा हौसला बढ़ाते। अनीस बज्मी ने भी मेरे संघर्ष के दिनों में मेरी हिम्मत को बनाए रखने में मेरी काफी मदद की। तो लोग मिलते रहे और काम आगे बढ़ता रहा।
और, फिर आपको मिली ‘स्पेशल ऑप्स’ लिखने की जिम्मेदारी..
बतौर संवाद लेखक मेरी पहली फिल्म ‘वॉर छोड़ ना यार’ 2013 में रिलीज हुई थी। उसके बाद मैंने कुछ और फिल्मों के लिए भी लिखा। लेकिन, ‘स्पेशल ऑप्स’ ने मुझे एक सही दिशा दिखाई। सीरीज के निर्देशक और निर्माता नीरज पांडे से मेरी मुलाकात निर्देशक टीनू देसाई के जरिये हुई। उनसे मिलने से पहले मैंने उनकी सारी फिल्में देखीं और समझा कि उनका सिनेमा का दृष्टिकोण क्या है। पहले मेरे दृश्यों में घटनाएं तेजी से भागती थीं, नीरज पांडे ने मुझे लेखन में ठहराव लाना सिखाया।
लेकिन, फिल्म लेखक बनने के लिए तो लोग तमाम तरह की पढ़ाई करते हैं, आपने इसे कैसे सीखा?
मैंने इसे करके सीखा है और इसमें तमाम अंग्रेजी फिल्मों की पटकथाओं ने मेरी मदद की। भारत में अभी इसकी अधिक उपलब्धता नहीं है लेकिन विदेश में रिलीज हो चुकी फिल्मों की पटकथाएं आसानी से मिल जाती हैं। तो पहले मैं एक फिल्म देखता था। फिर उस फिल्म को दोबारा देखता था, उसकी पटकथा को अपने लैपटॉप पर खोलकर। मैं दोनों चीजें समझता और ये समझता कि किसी दृश्य को जमाने, उसे आगे बढ़ाने और फिर एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक जाने का खास बिंदु क्या होगा। बस, मैंने पटकथा लेखन ऐसे ही सीखा, मैं कभी किसी फिल्म स्कूल नहीं गया।