जोड़ासांको (ठाकुरबाड़ी), यह उत्तरी कोलकाता का एक ऐतिहासिक स्थल है, जहां रवींद्रनाथ टैगोर (ठाकुर) का पुश्तैनी घर मौजूद है। देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के इसी घर में 7 मई, 1861 (बंगाली कैलेंडर के हिसाब से 25 वैसाख, 1268) में महान कवि, पहले भारतीय और पहले गैर-यूरोपीय नोबेल पुरस्कार विजेता गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ था। इस बार रवींद्रनाथ टैगोर की जयंती 9 मई को मनाई जा रही है। उन्हें गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। आज भले ही गुरुदेव हमारे बीच सशरीर मौजूद नहीं हैं, लेकिन यहां का हर कण मानो खुद-ब-खुद उनकी गाथा सुना रहा है।
यहीं पर उनका बाल्यकाल गुजरा और यहीं पर आठ वर्ष की आयु में पहली बार कविता की रचना की और सोलह वर्ष की आयु में लघुकथा प्रकाशित हुई। यहीं से शुरू हुआ था नोबेल पुरस्कार से लेकर नाइटहुड और भारत रत्न तक का सफर। और 7 अगस्त, 1941 को देश की आजादी से करीब छह वर्ष पहले उन्होंने यहीं पर आखिरी सांसें भी लीं। वे केवल विश्व विख्यात कवि ही नहीं थे, बल्कि वे दार्शनिक, रचनाकार, नाटककार, चित्रकार, समाज सुधारक, और संगीतकार भी थे।
गुरुदेव ने 50 से अधिक काव्य संग्रह और करीब 2,230 से अधिक गीत लिखे। वे बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकने वाले युगदृष्टा थे। वे एक मात्र ऐसे कवि हैं, जिनकी दो रचनाएं दो देशों की राष्ट्रगान बनीं- ‘जन गण मन’ भारत का और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बांग्ला’ गुरुवेद की ही रचनाएं हैं।
आज उनका पुश्तैनी भवन (जिसे अब पूरी तरह से संग्रहालय में बदल दिया गया है) रवींद्र भारती विश्वविद्यालय परिसर में स्थित है। जैसे ही विश्वविद्याल के छोटे से गेट से इस ऐतिहासिक भूमि में पैर रखते हैं, सामने एक विशाल भवन दिखाई देता है, जिसे महर्षि भवन कहते हैं। दाईं तरफ एक हाथ में किताब लिए गुरुदेव की एक विशालकाय मूर्ति है, लगता है जैसे वे अभी बोल पड़ेंगे।
महर्षि भवन सबसे पुराने भवनों में से एक है। इसकी पहली मंजिल में उनके जीवन से संबंधित यादों को संजोया गया है। यहां देश के महान चित्रकारों सुरेन कर, राम किंकर और नंदलाल जैसे कलाकरों की पेंटिंग्स को संजोया गया है। इसके पीछे सबसे पुराना भवन है, जिसे राम भवन कहते हैं, इसी भवन में रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ था, जिसे भारतीय पुरात्व विभाग ने संभाल कर रखा है।
‘पोस्ट ऑफिस’ नाटक का मंचन देखने आए थे गांधीजी
महर्षि भवन के साथ एक और भवन है जिसे विचित्रा भवन कहा जाता है, यहां पर भी सजीव चित्रों से टैगोर की जीवनी को दर्शाया गया है। इसी के भवन के ऊपर रवींद्रनाथ टैगोर के ‘पोस्ट ऑफिस’ नाटक का मंचन हुआ था, जिसे देखने के लिए खुद महात्मा गांधी आए थे। कला के प्रति गुरुदेव कितना समर्पित थे, इस बात का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि गुरुदेव ने 60 वर्ष की उम्र में पेंटिंग करना आरंभ किया था।
जन-जन तक शिक्षा को पहुंचाने के लिए गुरुदेव ने पांच विद्यार्थियों के साथ 1901 में एक स्कूल की स्थापना की, जो कालांतर में विश्व प्रसिद्ध विश्व भारती विश्वविद्यालय बना। आज इसे दुनिया शांति निकेतन के नाम से जानती है। यह पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के बोलपुर के समीप स्थित है। यह स्थान आज पर्यटन स्थल बन गया है क्योंकि टैगोर ने यहां कई कालजयी साहित्यिक कृतियों का सृजन किया। उनका घर ऐतिहासिक महत्व की इमारत है। विश्व भारती में हजारों विद्यार्थी अध्ययन कर रहे हैं।
1913 में गीतांजलि के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला
वर्ष 1910 में रवींद्रनाथ टैगोर की महान कृति गीतांजलि बांग्ला में प्रकाशित हुई। इसके दो वर्ष बाद 1912 में अंग्रेजी में उनके अनुवाद ने यूरोपीय पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय बना दिया। 1913 में गुरुदेव को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। वे पहले गैर यूरोपीय और पहले एशियाई साहित्यकार थे, जिसे प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार मिला। इसके बाद 1915 में रवींद्रनाथ टैगोर को जॉर्ज पंचम द्वारा ‘द सर’ (नाइटहुड) से सम्मानित किया गया, लेकिन टैगोर ने 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड से दुखी होकर यह सम्मान ब्रिटिश सरकार को लौटा दिया।
1878 से 1932 तक रवींद्रनाथ टैगोर ने पांच द्वीपों के तीस से अधित देशों का भ्रमण किया। इस दौरान वे दुनिया के महान कवियों, विचारकों और वैज्ञानिकों से मिले। इस दौरान वे चार्ल्स एफ एंड्रयूज, विलियम बटलर यीट्स, एजरा पाउंड, रॉबर्ट ब्रिजेस, ऑर्नेस्ट राइस, थॉमस स्टर्ज मूर, वैज्ञानिक आइंस्टीन और मुसोलिनी से भी मिले।
भारत के इस महान सपूत की उम्र अब ढलने लगी थी। 1940 में जब वे शांति निकेतन में ही रह रहे थे तो उनकी तबीयत बिगड़ने रहने लगी। जब तबीयत ज्यादा बिगड़ने लगी तो उनको एक विशेष ट्रेन से जोड़ासांको (ठाकुरबाड़ी) लागा गया। यहीं पर महर्षि भवन की पहली मंजिल में उनका ऑपरेशन किया गया। मां भारती के इस महान सपूत ने देश की आजादी से करीब छह वर्ष पहले 7 अगस्त, 1941 को इस धरती को अलविदा कह गया।
जन्म शताब्दी पर 1962 में रवींद्र भारती विश्वविद्यालय की स्थापना
जोड़ासांको (ठाकुरबाड़ी) में उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर 8 मई, 1962 को रवींद्र भारती विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू शामिल हुए थे। इस विश्वविद्याय की स्थापना विशेष रूप से संगीत, नृत्य और नाटक की शाखाओं में सीखने और संस्कृति की उन्नति के लिए की गई थी। जो आज सच्चे अर्थों में फलीभूतत हो रही है।